एक स्वर्णिम सूर्योदय से सूर्यास्त तक अफ़ग़ानिस्तान के अल्पसंख्यकों का सफ़र

अफ़ग़ानिस्तान में महिलाओं और धार्मिक अल्पसंख्यकों दोनों के लिए बाधाएं अक्सर अत्यंत कठिन  रही हैं- लेकिन पिछली शताब्दी के कुछ हिस्से सुनहरे अपवाद साबित हुए थे। 

सब से पहला ऐसा एक दौर जो दुर्भाग्यवश ज़्यादा वर्षों तक नहीं चला, अमीर अमानुल्लाह खान के शासनकाल (1919 -1929) में आया था। उस समय अफ़ग़ानिस्तान में  एक प्रमुख और बेहद लोकप्रिय वज़ीर (मंत्री) दीवान निरंजन दास नामक एक व्यक्ति थे जिनका ताल्लुक़ एक पुराने प्रतिष्ठित अफ़ग़ान हिन्दू परिवार से था। उनकी पुत्री राधा ने 20 वर्ष से काम आयु में ही अपने पिता के पूरे प्रोत्साहन के साथ साहस पूर्वक कई ऐसी भूमिकाएँ निभाई थीं जो तब तक अफ़ग़ानिस्तान में केवल पुरुषों के योग्य समझी जाती थीं।  कई बाधाओं को लांघने वाले राधा के  शुरुआती कदम  विशेष रूप से सराहनीय थे क्योंकि वे दरअसल अमीर अमानुल्लाह और उनकी सुधारवादी रानी सोरया तर्ज़ी के आगमन से पहले रखे गए थे, जिनकी प्रेरणा से आगे चल कर राधा को और भी ख्याति प्राप्त हुई थी। 

रावलपिंडी, 12 अप्रैल, 1920- ब्रिटिश भारत में अफ़ग़ान प्रतिनिधिमंडल, 
दाईं ओर बैठे हैं दीवान निरंजन दास 

अफ़ग़ान रीति-रिवाज के अनुसार राधा को बचपन से ही "राधा जान" कह कर बुलाया जाता था, जिसे बाद में आदर और औपचारिकता  ने "बीबी राधा जान" बना दिया। उन्होंने बहुत शान के साथ अफ़ग़ान समाज में अपनी पहचान बनाई थी। उनकी लोकप्रियता कुछ ऐसी थी कि अफ़ग़ानों ने उनके सम्मान में और उनकी सुंदरता और शालीनता  की प्रशंसा में गीत तक लिख दिए। उल्लेखनीय है कि उन रचनाओं में से कुछ गीत न केवल आज तक लुप्त नहीं हुए है, बल्कि कभी-कभी अफ़ग़ानिस्तान के सबसे प्रसिद्ध गायकों द्वारा गाये भी जाते हैं। 

"दुख्तर-ए-दीवान" 
राधा, 1920

इतिहास के पदचिन्ह कितने जल्द हल्के पड़ सकते हैं, इसका अंदाजा उन गायकों के "यूट्यूब" चैनलों के तहत अफ़ग़ानों द्वारा की गयी टिप्पणियों में पाया जा सकता है- जब वो पूछते हैं कि "क्या राधा जान किसी काल्पनिक चरित्र का नाम था?" एक तरह से वह सवाल इस बात का प्रमाण देते हैं कि उन गीतों के समय का अफग़ानिस्तान आज लगभग पूरी तरह से लुप्त हो चुका है। 


आस्थाओं का इंद्रधनुष  

राधा जान के साहस को सही रूप में समझने के लिए उनके पर्यावरण और परिस्थितियों दोनों को जानना आवश्यक है। आज अफ़ग़ानिस्तान का समाज लगभग पूरी तरह से मुस्लिम बन चुका है मगर 1901 में वहां की धार्मिक विविधता एक बहुरंगी इंद्रधनुष जैसी थी। उस समय अफ़ग़ानिस्तान में हिंदुओं और सिखों की संख्या साढ़े तीन से चार लाख के बीच थी, जो लगभग पचास लाख की कुल आबादी का लगभग 7% का एक छोटा लेकिन दृश्यमान अल्पसंख्यक वर्ग था। मगर इन आंकड़ों के पीछे एक कटु सत्य छुपा था जिसे देखने मैं वे अल्पसंख्यक चूक गए थे। 

10 शताब्दियों पहले जब अफ़ग़ानिस्तान में इस्लामी शासन पहली बार आया था, अफ़ग़ान समाज में हिंदुओं का बहुमत था। मगर तब से ही उनका प्रतिशत एक लंबी और निरंतर गिरावट पर था।   सन 1700 की शताब्दी  में शिकारपुरी सिंधी समुदाय की दुर्रानी शासकों द्वारा सरकारी कामकाज के लिए की गयी उत्सुक भर्ती जैसे दुर्लभ अपवाद कभी-कबार इस गिरावट को कुछ समय के लिए धीमा कर देते थे, लेकिन कुल मिलाकर अफ़ग़ानिस्तान में भारतीय सभ्यता से उपजी आस्थाओं के लोग से धीरे-धीरे सिमटते ही चले आ रहे थे और 10 शताब्दियों के बाद उनकी उपस्थिति मानो जैसे एक रस्सी के अंत के करीब आ पहुंची थी  मगर वे इस बात से बेख़बर थे। 

उन हिन्दू अल्पसंख्यकों में शामिल कई परिवार मेरी  "मोहयाल" बिरादरी के भी थे, जिस में राधा जान का 1898 में जन्म हुआ था. अफ़ग़ान अमीरात के दरबार और समाज में पश्तो/दरी भाषाओं के लहजे का स्वाभाविक प्रभाव उनके नाम के उच्चारण पर भी पड़ा, जो "राधा जान" के बजाय "रादो जान" जैसा ज़्यादा सुनाई देता था।  राधा के पूर्वी क्षितिज से परे, दर्रा-ए -ख़ैबर के आगे स्थित तत्कालीन सूबा-ए-सरहद, अविभाजित पंजाब और जम्मू-कश्मीर सामराज्य  में रहने वाले मोहयाल परिवारों में उन का उल्लेख "पठानी राधा जान" कह कर किया जाता था । 

अफ़ग़ानिस्तान के मोहयाल    

राधा जान के पुरखों का अफ़ग़ानिस्तान के बारकज़ई अमीरों के प्रशासन में एक विशिष्ट रिकॉर्ड था, जो कई पीढ़ियों से चला आ रहा था। जैसा कि "सिलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू" में भी उल्लेखित है , राधा जान के  पिता ब्रिगेडियर-जनरल दीवान निरंजन दास न केवल अफ़ग़ान अमीर के सबसे भरोसेमंद सलाहकारों में गिने जाते थे, बल्कि अफ़ग़ानों के बीच काफी लोकप्रिय भी थे। उनकी लोकप्रियता एक प्रकार से काफी दिलचस्प उपलब्धि थी, क्योंकि बतौर वज़ीर-ए -मालियाः (खजाना  मंत्री) उनकी ज़िम्मेदारियों में समस्त अफ़ग़ानिस्तान की कर वसूली भी शामिल थी, ऐसे समय में जब अफ़ग़ानिस्तान में कई बाग़ी कबीले भी शामिल थे। दीवान निरंजन दास मिलनसार, स्पष्टवादी और एक प्रगतिशील व्यक्ति थे, जिनके सरदफ्तर -ए-वज़ोहत और वज़ीर-ए-मालियाः के पद कई दशकों से की गयी विभिन्न आमिरों की सेवा से प्राप्त किये गए थे। दीवान निरंजन दास तीसरे एंग्लो-अफ़ग़ान युद्ध के बाद ब्रिटैन से अफ़ग़ानिस्तान की पूर्ण स्वतंत्रता को अंतिम रूप देने वाले अफ़ग़ान प्रतिनिधिमंडल के एक प्रमुख सदस्य भी थे।  


एंग्लो-अफ़ग़ान सम्मेलन, मसूरी, 25 जुलाई, 1920- दीवान निरंजन दास बैठे लोगों की पंक्ति में सब से बाईं ओर
जिन वार्ताओं ने अफ़ग़ानिस्तान की ब्रिटेन से स्वतंत्रता को अंतिम रूप दिया


जैसा कि 1923 में लिखी गयी गुलशन-ए-मोहयाली में दर्ज किया गया था, दीवान निरंजन दास छिब्बर का परिवार अफग़ानिस्तान में कई पीढ़ियों से विशिष्ट रहा था। इन नामों में दो भाई शामिल हैं जो शाही अफ़ग़ान सेना की तरफ से लड़ते हुए मारे गए थे। दशकों पहले, दीवान नारायण दास को एक कठिन विद्रोह को रोकने में मिली कामयाबी के बाद अमीर शेर अली खान द्वारा फील्ड मार्शल के सर्वोच्च सैन्य पद से सम्मानित किया गया था। उनके धार्मिक प्रवृत्ति के बेटे दीवान हीरानंद को हालांकि पेशावर के एक हिंदू मंदिर के महंत बनने पर परिवार ने बहिष्कृत कर दिया था, क्योंकि मोहयल सामुदायिक संहिता में पुरोहिताई से होने वाली कमाई पर सख्त मनाही थी। तत्कालीन परंपरा के अनुसार इस वंशावली में राधा और परिवार की अन्य सभी महिलाओं का नाम नहीं है।

कई मायनों में, राधा के परिवारजन ओटोमन तुर्की साम्राज्य के विशिष्ट किंतु बेसहारा अर्मेनियाई ईसाईयों की तरह थे। उन्होंने अत्यधिक सावधानी बरतते हुए कड़ी मेहनत के साथ अफ़ग़ान समाज में अल्पसंख्यक होने के बावजूद प्रभावशाली पद प्राप्त किये थे। उस समय अफ़ग़ानिस्तान में हिंदू और सिख समुदाय धन और गणित से जुड़े कौशल के लिए जाने जाते थे। मोहयलों को इसके अलावा कुछ अन्य परंपराओं से भी लाभ प्राप्त हुआ- कहने को तो वे ब्राह्मणों के वंशज थे मगर उन की कई परंपराएँ आम धारणा के ब्राह्मणों से यकीनन कोसों परे थीं।  इन सामुदायिक परम्पराओं में  सैन्य सेवा की प्रवृति , छुआछूत की कुरीति को पूरी तरह से नकारते हुए हर किसी से बेबाक होकर मिलना, आदि शामिल थे।  उस ज़माने में मोहयालों की अपने अन्नदाताओं के प्रति उनकी अडिग निष्ठा (वफ़ादारी) भी मशहूर थी, जिस वजह से दरबार के षडयंत्रों के माहौल में शासकों के लिए मूल्यवान साबित होती थी। इन परम्पराओं ने कबीले के कुछ लोगों को राज्य के वित्त के साथ-साथ रणभूमि में भी भूमिकाएँ निभाने में मदद की।  उनके विस्तारित परिवार में से कइयों ने सूबेदार (क्षेत्रीय मुख्य प्रशासक) या सरदफ़्तर   (विभाग प्रमुख ) जैसे उच्च पदों पर कार्य किया था, और अक्सर उन के अधीन मिर्ज़ा श्रेणी के जूनियर अधिकारियों की एक बड़ी संख्या होती थी। 

राधा जान की परिस्थितियां में इस तरह एक अजीब मिश्रण था।  एक ओर तो वे धन संपत्ति और विशेषाधिकारों के मध्य पली बढ़ीं, परन्तु दूसरी ओर एक अत्यधिक रूढ़िवादी और अस्थिर समाज में धार्मिक अल्पसंख्यक होने की वजह से उनके परिवार और समुदाय पर निरंतर  ख़तरे के बादल मंडराते भी रहते थे  

राधा का जन्म अमीर अब्दुल रहमान खान के शासनकाल की समाप्ति के निकट हुआ था। इस शासक को इतिहासकारों ने  अक्सर "आयरन (लोह) अमीर" की उपाधि दी है, और उसका शासनकाल (1880-1901) भी एक तरह का अजीब मिश्रण था- कभी कभी तो उसे अफ़ग़ानिस्तान  को आधुनिक मूल्यों से निर्माण करने का भूत सवार हो जाता था, तो कभी वो असीम बर्बरता का उदाहरण पेश कर देता। 1895 में, राधा के  जन्म से कुछ साल पहले, अमीर ने इस्लामिकरण के उत्साह में आदिवासी अफ़ग़ानिस्तान के अंतिम शेष हिंदू हिस्से को न केवल ध्वस्त कर दिया बल्कि वहां के सभी निवासियों को जबरन इस्लाम में परिवर्तित कर दिया था। लंबे समय से मुसलमान बन चुके पड़ोसी इलाक़ों ने इस क्षेत्र को अपमान के तौर पर  "काफ़िरिस्तान" का नाम दिया था, और अब वह नाम बदलकर "नूरिस्तान" कर दिया गया, यह जताने के लिए कि इस्लाम का प्रकाश आखिरकार वहां पहुंच ही गया। इस के पश्चात अमीर ने हर्ष पूर्वक इस्लामिक कट्टरपंथियों की ओर से  "ज़िआ-उल-मिल्लत-वा-उद-दीन"  की उपाधि स्वीकार की (जिसका अर्थ है "राष्ट्र और इस्लाम का प्रकाश") और इसी भाव में बहते हुए उसने जिहाद पर एक दो कृतियों भी लिख डाली।

राधा के परिवार जैसे शहरी हिन्दू इस तरह की घटनाओं के दौरान असहाय रह जाते और इन सब में अपने स्वयं के साथ भविष्य में होने वाली भयावहता के संकेतों को पहचानने में चूक कर देते। आख़िर उनके  धर्म और काफ़िरिस्तान के हिंदू धर्म में कुछ अंतर था, इस बात से खुद को तस्सली दे देते। मगर कभी कबार अमीर के दूसरे कुकर्मों को नज़रअंदाज़ करना थोड़ा ज़्यादा कठिन हो जाता था - जैसे कि 1880 में, उसी अब्दुल रेहमान ख़ान के आदेश पर पंजशेर पर्वत माला में स्थित अफ़ग़ानिस्तान के तत्कालीन सबसे लोकप्रिय हिंदू तीर्थ स्थल को उजाड़ कर काबुल स्थानांतरित कर दिया था। 

ऐसी मुश्किल परिस्थितियों  में भी निरंजन दास अमीर से एक रिआयत प्राप्त करने में कामयाब रहे थे- और वो यह था कि शहरी हिंदुओं को ज्यादातर विवादों के लिए उनके "धर्म शास्त्र" के क़ानूनों के द्वारा शासित किया जाना था, बजाय इस्लामी शरीयत के, जो कहीं ज़्यादा कठोर थी। सिखों को भी धर्म शास्त्र के मुताबिक़ शासित होने का विकल्प दिया गया और उन्होंने इसे हर्ष के साथ स्वीकार कर लिया गया था।  उस समय अफ़ग़ान दरबार में, सिखों को नानकपंथी सिंधियों समेत "ग्रन्थ का पालन करने वाले हिन्दू"  कहा जाता था। 

पराजित काफ़िरिस्तान की जनजातियों को वेश्यालयों या गुलामी के लिए नहीं बेचा गया था, शायद यही शहरी हिंदुओं के प्रभाव की सूक्ष्म सीमाएं परिभाषित करतीं थीं। कुछ अल्पसंख्यक मुस्लिम संप्रदायों के पास तो इतना भी नहीं था। 1890 में शिया मुसलमानों के हज़ारा समुदाय का एक विद्रोह के जवाब में भीषण नरसंहार हुआ था जिस ने उनकी 60% आबादी को मार डाला, और दस हजार बंदी हज़ारा मर्दों को काबुल में एक ही दिन में ग़ुलाम के रूप में बेच दिया गया, और उनकी स्त्रियों की भी अलग से नीलामी कर दी गयी। उल्लेखनीय हैं के अफ़ग़ानिस्तान उस समय एक ब्रिटिश-संरक्षित साम्राज्य था, जिसे भारत के ब्रिटिश शासकों ने काफ़ी उदारता के साथ हथियार और धन उपलब्ध करवाया था। 

राधा जान अभी नन्ही उम्र की ही थीं, जब अमीर हबीबुल्लाह खान सिंहासन पर विराजमान हुए। उनका शासनकाल (1901-1919)  "आयरन अमीर" के अपेक्षाकृत अधिक प्रगतिशील तो था मगर पूर्णतः कलंक रहित फिर भी नहीं - 1903 में अमीर के एक सक्षम सलाहकार सैयद अब्दुल लतीफ़ को सिर्फ़ इस्लाम के "अहमदिया" संप्रदाय को स्वीकारने के लिए मृत्युदंड दिया गया। लतीफ़ साहब वृद्धावस्था में पहुँच चुके एक कमज़ोर व्यक्ति थे, कई भाषाओं को जानने वाले एक विद्वान थे, और उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान और ब्रिटिश भारत के बीच "डुरंड रेखा" का सीमांकन करने में मदद भी की थी,  मगर इन में से किसी भी तथ्यों या उपलब्धियों ने उन्हें अमीर की तरफ से करुणा नहीं उपजायी थी- और उन के प्राण निरंतर पथराव के क्रूर माध्यम से लिए गए थे 

आंगन का एक फूल

ऐसी ही बर्बरताओं के मध्य राधा जान को इस दुनिया में एक छोटी बहन प्राप्त हुई। कई दशकों बाद, यादों को टटोलते  हुए एक दूर का रिश्तेदार द्वारा "द काबुल टाइम्स"  नामक अख़बार में दिए गए साक्षात्कार के अनुसार , उस बहन का नाम जस्सो जान था लेकिन अफ़ग़ान समाज में उसका उल्लेख ज़रो जान के रूप में भी किया जाता है। (उनके वंशजों से प्राप्त की गयी जानकारी के अनुसार उनका नाम दरअसल "यशोदा" जान था।)  शाही दरबार में यह कहा जाने लगा कि भगवान ने राधा को एक "हमबाशी" यानी के एक साथी खेलने के लिए उपहार में दिया था। ऐसे समय में जब एक पुरुष उत्तराधिकारी का महत्त्व कहीं अधिक समझा जाता था, ये शब्द दीवान साहब के लिए शायद सांत्वना के रूप में कहे जाते थे।

नारी शिक्षा के चरम अभाव वाले  समाज में राधा ने दरी, पश्तो और हिंदी भाषाओं में प्रतिभा हासिल की और कम उम्र से ही प्रशासनिक मामलों में गहरी दिलचस्पी लेने लगीं। वह अक्सर अपने पिता के साथ उनके काम पर चली जाती थी, और दरबारी अक्सर उस बच्ची को शाही आँगन में खिले एक फूल के रूप में वर्णित करते थे। अपने युग में लड़कियों के लिए और भी अधिक असामान्य उपलब्धि  के रूप में उन्होंने घुड़सवारी भी सीखी, और इसके लिए अपने गहरे प्यार के परिणामस्वरूप, अपनी किशोरावस्था में एक निपुण सवार बन गईं।

1919 में अमीर हबीबुल्ला की हत्या ने अमीर अमानुल्लाह खान को तख़्त पे लाने का काम किया, जिन्होंने सुधारों को खूब आगे बढ़ाया।। उनकी पत्नी महारानी सोरया ने भी महिलाओं को पिछड़ेपन से बाहर उभारने के  लिए एक अभूतपूर्व वातावरण बनाया। सुधारवादी सोच रखने वाले दीवान साहब के लिए यह एक बेहतरीन अवसर था, वे राधा को आधिकारिक ज़िम्मेदारियों के लिए तैयार करने में जुट गए।   

शुरुआत में ही लेकिन एक बुनियादी चुनौती सामने आयी। अफ़ग़ानिस्तान में महिलाओं को सार्वजनिक रूप से घूंघट के बिना शायद ही कभी देखा गया था, और शाही दरबार में तो बिलकुल नहीं। महिलाओं के लिए वर्दी की कोई मिसाल भी नहीं थी, मगर राधा जान ने पुरुषों द्वारा पहने जाने वाले ट्यूनिक्स और पैंट को अपना लिया, टखने तक जूते और पगड़ी के साथ। सिर को न ढकना अभी भी एक महिला के लिए नग्नता माना जाता था। ये सारा लिबास घुड़सवारी के लिए पूरी तरह से अनुकूल था, और राधा को अक्सर काबुल से पग़मान तक घोड़ा सरपट दौड़ाते अक्सर देखा जाता था, जो उत्तर में पहाड़ियों में एक नया विकसित प्रशासनिक शहर था, जहाँ अमीर अमानुल्लाह ने एक नए महल का निर्माण भी करवाया था। प्रसिद्धि और इज़्ज़त दोनों राधा के क़दम चूमने लगीं।  राधा का एक अन्य पसंदीदा परिवहन साधन घोड़ा गाड़ी थी, और लोगों को उनका जैसे हर साल एक नयी घोड़ा गाड़ी प्राप्त करना एक फैशन स्टेटमेंट लगता था। दरबार में, राधा जान को एक सिविलियन कर्नल के  रैंक से भी अलंकृत किया गया। लगभग उसी समय, 1923 में, दीवान निरंजन दास 70 वर्ष की आयु में सेवा से सेवानिवृत्त हुए।

अमानुल्लाह खान और रानी सोरया द्वारा किए गए सुधार वास्तव में अपने समय के लिए अत्यन्य उल्लेखनीय थे- औरतों के लिए बुर्क़ा वैकल्पिक घोषित कर दिया गया, लड़कियों के लिए स्कूल खोले गए, बाल विवाह पर प्रतिबंध लग गए, और मर्दों पर एक से अधिक शादी करने के लिए कुछ शर्तें भी रख दी गयी। अमीर ने  प्रशंसनीय साहस के साथ अपने सामराज्य के रूढ़िवादी हिस्सों में भी जा जा कर इस तरह के सुधारों के लिए व्यक्तिगत रूप से अभियान चलाया। एक अत्यंत महत्वपूर्ण समारोह में महारानी सोरया ने भाषण के अंत में अपना घूंघट हटा लिया, और उनके दल की अन्य महिलाओं ने भी ऐसा ही किया।  जज़िया नाम का एक भेदभावपूर्ण कर, जिस से पहले किसी भी गैर-मुस्लिम परिवार को छूट नहीं मिलती थी,  भी बंद कर दिया गया था।

पानी केरा बुदबुदा 

दुर्भाग्य से शाही दंपति सुधारों के प्रति इस्लामिक रूढ़िवादीयों  के क्रोध को ठीक तरह से भांप नहीं पाए। जैसा कि ख़ालिद होसैनी की उत्कृष्ट उपन्यासों (द काइट रनर, ए थाउज़ेंड स्प्लेन्डिड संस) ने हाल में दर्शाने का निपुण काम किया है, परंपरा के कुछ रंग अफ़ग़ान समाज में बहुत आसानी से बदलते नहीं हैं। 1929 में अमानुल्लाह खान का तख़्तापलट कर दिया गया। जब बाग़ियों की टोलियां उत्तर दिशा से काबुल के समीप आने लगीं, वह अपनी रानी के साथ राजमहल छोड़कर दक्षिण-पश्चिम में स्थित कन्धार की तरफ शीघ्रता से रवाना हो गए जहां विद्रोही अभी तक पहुंचे नहीं थे। कन्धार जाते हुए उनकी रोल्स रॉयस कार का विद्रोही घुड़सवारों ने जम कर पीछा किया। कार ने मगर घोड़ों को दौड़ने में मात दे दी, और अमीर अमानुल्लाह मौत से बाल बाल बच गए। 

नये अमीर हबीबुल्लाह कलकानी (एक पूर्व डाकू जिसे "बाचा-ए-सक़ाओ"  यानी  "जल वाहक के बेटा" के नाम से जाने जाते थे) ने निरंजन दास को सेवानिवृत्ति से वापस आने के बदले में भारी रक़म से लुभाने की कोशिश की, और विनम्रता से मना किये जाने पर उन्हें सज़ा न देने का फैसला किया। दीवान के पास वृद्धावस्था का बहाना था लेकिन आख़िरकार उनका समस्त परिवार अमानुल्लाह के प्रति निष्ठावान था। यह वफ़ादारी लेकिन बाद जल्द ही और अधिक महँगी साबित हुई, जब मोहम्मद नादिर खान, जो पहले अमानुल्लाह की सुरक्षा संभालते थे, ने सत्ता हथिया ली और कई विरोधियों को मार डाला। निरंजन दास को राजमहल बुलवाया गया और काबुल के सभी प्रमुख हिंदुओं से निष्ठा के लिखित वादे लाने ने को कहा गया। इसका कारण शायद यह था कि अमानुल्लाह अभी भी निर्वासन में जीवित थे, और अपने राज्य को वापस पाने के लिए उत्सुक भी।   

आदेश का पालन करते हुए वृध्द निरंजन दास ने कुछ कठिनाई के साथ लिखित हलफ़नामों को इकट्ठा तो कर लिया मगर उन कागज़ों को नए अमीर ने संदिग्ध आधारों पर अस्वीकार कर दिया। सरकार के खिलाफ किसी भी षड्यंत्र में भाग नहीं लेने के बावजूद, निरंजन दास और उनके रिश्तेदारों को नज़र में रखा गया और उनके अपमान का सिलसिला शुरू हो गया। ग़ैर-मुसलमानों की प्रताड़ना उन धार्मिक रूढ़िवादियों को भी पसंद आयी जिनके अभियान ने अमानुल्लाह को बेदख़ल करने में भूमिका निभायी थी। 1931 में दीवान साहब के एक भतीजे राम दास को भी भीषण रूप से प्रताड़ित किया गया।  अफ़ग़ान सेना में कर्नल रहे राम दास  तीसरे एंग्लो-अफगान युद्ध में लड़े थे, और काबुल के हिंदुओं में "करनैल" के नाम से लोकप्रिय थे।  उनका जुर्म जैसे सिर्फ इतना था की वे अमानुल्लाह खान के जाने के बाद भी उनकी खुले तौर पर प्रशंसा करते रहे थे। राम दास की काबुल के सड़कों पर एक चिल्लाते हुए संदेशवाहक के आगे-आगे चला कर परेड कराई गई, और फिर उन्हें अपनी वर्दी और अपने परिवार के गहने को सरकार  के हवाले करने के लिए कहा गया। सिर्फ़ इतना ही नहीं, बाद में "करनैल" के घर को भी जला दिया गया,  जिसकी वजह से उनका परिवार मजबूरन काबुल के "हिंदू गुज़र" नमक इलाके में स्थानांतरित हो गया, जहाँ निरंजन दास, प्रभाव के कुछ अवशेषों के साथ, उन्हें एक दूसरा घर खरीदने में कामयाब रहे थे। 

दीवान निरंजन दास की 1932 में मृत्यु से राधा शत्रुतापूर्ण वातावरण के बीच और भी अकेली पड़ गईं। व्यक्तिगत सुरक्षा के कारणों ने जल्द ही उन्हें कुछ समय के लिए भारत भी जाना पड़ा। विरासत में राधा जान को भारी संपत्ति तो मिली थी, मगर अब वह नादिर खान और उसके भाइयों की नजर में आ चुकी थी। निरंजन दास के परिवार का शकर दारा इलाक़े में स्थित "बाग़-ए-हिन्दू" नाम का एक विशाल बाग़ था, जिस में अनेक प्रकार के फलों के दरख़्त थे और जिसके बीच एक ताज़े पानी की धारा बहती थी। इस संपत्ति को नादिर खान के भाई शाह महमूद द्वारा जब्त कर लिया गया। अधिग्रहण पर पर्दा डालने के इरादे से महमूद ने बाग़ को खुद का नाम देने की कोशिश तो की लेकिन पुराना नाम लोकप्रिय प्रचलन में बना रहा। बाग्रामी में स्थित "ज़नाबाद" नामक एक जागीर नादिर के सौतेले भाई मोहम्मद हाशिम खान द्वारा ले ली गई। शायद और अधिक नुकसान को रोकने के प्रयास में राधा ने साहसपूर्वक काबुल लौटने का फैसला किया- लेकिन उस निर्णय के नतीजा केवल यह हुआ कि काबुल के क़लाचा इलाक़े और सुर्ख़ रोद में बाला बाग़ नाम के अपने एक और बाग़ को बेहद सस्ते दामों में बेचने के लिए दबाव का सामना करना पड़ा।

वृद्धावस्था में राधा जान

अपने परिवार की विशालकाय संपत्ति का एक अत्यंत छोटा सा ही हिस्सा ले कर राधा जान दूसरी बार अफ़ग़ानिस्तान छोड़ कर भारत आ गयीं, जहाँ उन्होंने ज़्यादातर अपने आप को सार्वजानिक दृष्टि से दूर ही रखा और कभी शादी भी नहीं की।  एक अफ़ग़ान रिश्तेदार के अनुसार जब राधा जान की मृत्यु निर्वासन काल में दिल्ली में हुई, तब दरी कैलेंडर के वर्ष 1352 का मिज़ान का महीना था- यानि कि 1973 का सितम्बर/अक्टूबर- मगर अख़बार में छपी यह जानकारी ग़लत थी, क्योंकि वे दरअसल 1972 में गुज़री थीं। 

जीवन की समाप्ति से पहले राधा जान बस एक संक्षिप्त यात्रा के लिए दोबारा अफ़ग़ानिस्तान गईं थीं।  उस यात्रा के दौरान उन्हें कई ऐसे लोग अत्यंत आदरपूर्वक मिले जो 50 वर्ष पहले के सुखद दिनों के दौरान ज्ञात थे। इस यात्रा के दौरान उन्होंने भावनाओं पे काबू रखते हुए उन सभी स्थलों को भी देखा जो कभी उनके परिवार की जागीरों  का हिस्सा रहे थे। 

अतीत का भस्म होना  

राधा जान अब अफ़गानों द्वारा लगभग भुला दी गईं  हैं, और उनके सम्मान में लिखे हुए गाने तेजी से परियों की कहानियों की श्रेणी में गिने जा रहे हैं। समाचार लेखों, सरकारी रिकॉर्ड और पुरानी किताबों में अभी भी उपलब्ध विश्वसनीय संदर्भों के बावजूद, अफ़ग़ानिस्तान के पहले प्रगतिशील महिलाओं के भगिनी संघ के अधिकांश क़िस्सों में भी राधा जान का उल्लेख अक्सर नहीं होता हैं- मानो जैसे लैंगिक समानता की लड़ाई में राधा जान की भूमिका सिर्फ़ अज्ञात सैनिक की कब्र में रहने की थी। 

उधर अपमानित कर्नल राम दास का परिवार हिंदू गुज़र इलाक़े में दशकों तक रहा- पता नहीं  यह उनका साहस था या केवल विकल्प का अभाव। राम दास जी के बेटे सुरिंदर कुमार ने 1970 के दशक में अफगानिस्तान नेशनल बैंक में महानिदेशक का पद प्राप्त किया। उसके पश्चात हुए अफ़ग़ानिस्तान पर सोवियत आक्रमण, फिर बाद में काबुल पर मुजाहिदीन द्वारा भीषण बमबारी, या उससे भी बदतर तालिबान युग की घटनाओं के दौरान उनके साथ क्या क्या हुआ, मुझे इसकी कोई जानकारी नहीं मिल सकी।

राधा के युग में पचास लाख रही अफ़ग़ानिस्तान की आबादी  आज अनेक युद्धों के बावजूद 3 करोड़ से अधिक हो गई है, लेकिन वहां के हिंदू और सिख अल्पसंख्यकों  की संख्या में लगातार कमी होती आई है। 1990 में लगभग पचास हज़ार तक सिकुड़ जाने के बाद, वे अब अंतिम एक हज़ार पर आ गए हैं। 

जिसे प्राचीन भारतीय महाकाव्यों में "गांधार" के नाम से पढ़ा सुना जाता था, उस कंधार का अंतिम हिंदू निवासी 2019 के अंत में भारत के लिए रवाना हुआ, जिस के साथ प्राचीन काल से निरंतर चलती आयी वहां हिन्दुओं की ऐतिहासिक उपस्थिति आखिर समाप्त हो गयी। अफ़ग़ानिस्तान में उजड़ने की कगार तक सिख और हिन्दू समुदायों ने अपने आपसी  सुख और दुःख दोनों का साथ बनाये रखा है। इन समुदायों के आदमियों को लंबे समय से स्नेहपूर्ण अफगानों द्वारा "लाला"  (भाई के लिए पश्तो शब्द) कह कर संबोधित किया जाता था , मगर अब वे अपने बच्चों को उत्पीड़न और धमकियों के डर से स्कूल भेजने की हिम्मत नहीं करते हैं।  गलियों में उन्हें "दालखोर" काफ़िर, या दाल खाने वाले काफ़िर की गालीयां आम तौर पर सुननी पड़ती हैं।

राधा के लिए लिखे गए एक लोकप्रिय दरी गाने के छंद उसकी सुंदरता को हमेशा बनाये रखने के लिए कुछ असामान्य तरीके से अपनी बात कहते  हैं:


او دختر دیـوان بی بی رادو جـان
لاله را قسم دادم که رادو را نسوزان

ओ, दुख्तर-ए-दीवान, बीबी रादो जान!
लाला रा क़सम दादम, के रादो रा नासोज़ान

ओ दीवान की बेटी, बीबी राधा जान!
मैंने लाला (आपके पिता) से वादा लिया है कि राधा का कभी भी अग्निदाह नहीं होगा!  

यह शब्द तो मानो ऐसा प्रतीत कराते हैं कि लिखने वाले ने दशकों पहले ही महसूस कर लिए था, उस दर्दनाक विडंबना को जो सिर्फ 3 पीढ़ियों के बाद सामने आने वाली थी। पिछले 10-15 सालों में अफ़ग़ानिस्तान के हिंदुओं और सिखों को अपने मृतकों के लिए दाह संस्कार की अनुमति पाने के लिए अक्सर तरसना और लड़ना पड़ा है। अफ़ग़ानिस्तान की भूमि पर शताब्दियों से चलती आयी इस परंपरा को अब "विदेशी" और इस्लाम के प्रति अपमानजनक बता कर अक्सर आपत्ति जताई जाती है। 

नात्सी जर्मनी में हुए यहूदी नरसंहार से जीवित बच निकलने वाले लेखक एलि वीज़ल (जो बाद में नोबेल पुरस्कार विजेता भी बने) ने अपनी किताब "नाईट" (रात्रि) में एक बात अत्यंत मार्मिक रूप से समझायी है, जो अफ़ग़ानिस्तान के धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए भी लागू होती है।  और वह यह है की किसी भी समुदाय का सबसे पूर्ण विघटन तब होता है जब वे न केवल वर्तमान से मिटाये जाते हैं, बल्कि जब उनका अतीत भी मिटा दिया जाता है। 


2 comments:

  1. बहुत सुन्दर विवरण है , धन्यवाद

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    1. टिपण्णी के लिए धन्यवाद अशोक जी! यह जान कर ख़ुशी हुई कि आप ने इसे पढ़ने योग्य समझा।
        
      अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश और कश्मीर वादी के हिन्दुओं सभी के साथ अलग-अलग युगों में हुई क्रूर त्रासदियों में काफ़ी हद तक एक जैसी ही कहानियां मिलती हैं । ऐसा प्रतीत होता है जैसे दुर्भाग्यवश यह इतिहास हमारे सबक सीखने तक खुद को बार बार दोहराता ही रहेगा।
         
      अतः हो सके तो इस लेख को अन्य लोगों के साथ अवश्य शेयर कीजियेगा- ख़ास तौर पर उन लोगों से जो पूछते हैं कि CAA में अफ़ग़ानिस्तान के अल्पसंख्यकों को शामिल करने की आखिर क्या ज़रुरत थी।     

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